Hindi science

green ear disease or Downy mildew of bajra in hindi || A fungal disease of bajra

बाजरे का हरित बाली रोग अथवा मृदूरोमिल आसिता

बाजरे का हरित बाली रोग – यह बाजरे (Pennisetum typhoides) का एक गंभीर रोग है । भारतवर्ष में यह बाजरा उगाय जाने वाले सभी क्षेत्रों में स्थानिक रोग (endemic disease) के रूप में पाया जाता है । 1975 में कर्नाटक व महाराष्ट्र राज्य में यह रोग महामारी (epidemic) के रूप में फैला जिसके कारण फसल लगभग पूर्णतः नष्ट हो गई ।
1. रोग लक्षण (disease symptoms) –


i. इस रोग के लक्षणों का अध्ययन दो अलग-अलग प्रावस्थाओं में किया जा सकता है – अ) मृदूरोमिल आसिता प्रावस्था (downy mildew stage) – यह मुख्यतः पत्तियों में पाई जाती है । ब)हरित बाल प्रावस्था (green ear stage) – यह पुष्क्रम (inflorescence) में पाई जाती है ।
ii. संक्रमित पत्तियों की निचली सतह पर बीजाणुधानियाँ पाउडर के रूप में दिखाई देती है । कुछ समय पश्चात् पत्तियाँ व्यावर्तित (twisted) व हरिमाहीन (chlorotic) हो जाती है । कभी-कभी ये लम्बाई में फट जाती है । संक्रमित पौधे प्रायः स्तंभित (stunted) होते है ।
iii. इस रोग के प्रमुख लक्षण पुष्पक्रम में उत्पन्न होते है । इसमें सम्पूर्ण पुष्पक्रम अथवा उसका कुछ भाग शिथिल हो जाता है । तुष (glume) व पुंकेसरों का आकार पत्ती के समान हो जाता है ।
iv. संक्रमित पौधों में जायांग कम विकसित होते है । इसके स्थान पर भी पत्ती के समान संरचनाएँ बन जाती है ।
2. रोगकारक जीव (causal organism) – यह रोग स्कलैरोस्पोरा ग्रैमिनिकोला (Sclerospora graminicola) नामक कवक से होता है । यह फाइकोमाइसीटीज वर्ग का अविकल्पी परजीवी (obligate parasite) है । इसका कवकजाल अंतराकोशिक (intercellular), शाखित ,पटहीन व संकोशिक (coenocytic) होता है । पोषक पदार्थों का अवशोषण कंदिल चूषकांगों (bulbous haustoria) के द्वारा होता है ।
इस रोगकारक की सामान्यतः निषिक्तांड (oospore) प्रावस्था पाई जाती है ।
3. रोग-चक्र (Disease cycle) –


i. अंतराकोशिक कवकजाल से अनेक उर्ध्व कवकतंतु विकसित होते है, जो बीजाणुधानीधर (sporangiophore) के रूप में कार्य करते है । इनका निर्माण अधोरंध्री कोष्ठकों (sub-stomatal chambers) में होता है । ये रंध्र छिद्र (stomatal pore) से अकेले अथवा समूह में बाहर निकलते है ।
ii. प्रत्येक बीजाणुधानीधर की लंबाई लगभग 10 माइक्रोमीटर होती है । इनका आधारीय भाग दृढ़, पटहीन अथवा अशाखित होता है ,परन्तु अंतस्थ छोर (ऊपरी भाग) अपेक्षाकृत मोटा तथा द्विभाजी शाखित (dichotomously branched) होता है । इन शाखाओं के शीर्ष फूले हुए होते है तथा उनमें बीजाणुधानियों (sporangia) का निर्माण होता है । प्रत्येक बीजाणुधानी (sporangium) काचाभ (hyaline) ,दीर्घवृतीय पैपिलामय (papilate) एवं चिकनी भित्ति युक्त होती है ।
iii. बीजाणुधानियाँ सामान्यतः रात्रि में उत्पन्न होती है तथा प्राप्तः होते ही बीजाणुधानीधर से अलग हो जाती है । इसके तुरंत पश्चात् ये फट जाती है । अंकुरित होने पर प्रत्येक बीजाणुधानी से 3-12 वृक्काकार ,द्विकशाभिक चलबीजाणु (zoospores) निकलते है ,जो कुछ समय तक गतिशील रहने के पश्चात् सुप्त हो जाते है ।
iv. सुप्तावस्था में बीजाणु अपने चारों ओर एक भित्ति स्त्रावित कर लेता है । अनुकूल परिस्थिति आने पर ये अंकुरित होकर एक जनन नलिका (germ tube) का निर्माण करते है जो पुनः रंध्र द्वारा परपोषी के अंतरकोशिक अवकाशों में पहुँचकर कवकजाल बनाते है ।
4. रोग नियंत्रण (Disease control) –
i. इस रोग के नियंत्रण का मुख्य उपाय प्रतिरोधी किस्मों (resistant varieties – example- T-15, T-65 आदि) का उपयोग करना है ।
ii. संक्रमित पौधों को मिट्टी से निकालकर जला देना चाहिए ।
iii. चूँकि निषिक्तांड मिट्टी में कई वर्षों तक सुप्त अवस्था में रहते है ,अतः मिट्टी का विसंक्रमण (disinfection) रोग नियंत्रण की प्रभावशाली विधि है ।
iv. फसल के सस्यावर्तन (rotation of crop) से भी रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।

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