Hindi science

Bacterial diseases of Plants in Hindi

पौधों के जीवाण्विक रोग
(Bacterial diseases of Plants)

पादप रोगजनक जीवाणुओं प्रमुख के लक्षण –
1. सभी रोगजनक (Pathogenic) तथा अरोगजनक (non-pathogenic) जीवाणु मृतजीवी (Saprophytic) है । अतः इनका कृत्रिम माध्यम (Artificial medium) में संवर्धन किया जा सकता है ।
2. पादप रोगजनक जीवाणु जंतुओं को संक्रमित नहीं करते है । (इसी प्रकार जंतुओं को संक्रमित करने वाले जीवाणुओं से पोधे प्रभावित नहीं होते है ।)
3. सभी पादप रोगजनक जीवाणु दण्डरूपी (rod-shaped) है ।
4. अधिकांश पादप रोगजनक जीवाणु कशाभिक (Flagellated) है ।
5. केवल दो ग्राम पॉजिटिव जीवाणुओं ,कोर्निबैक्टिरियम तथा स्ट्रेप्टोमाइसीज को छोड़कर शेष सभी पादप रोगजनक जीवाणु ग्राम नेगेटिव है ।

जीवाणु रोगों के प्रमुख लक्षण –
1. स्थानिक विक्षत (local lesions) – कुछ जीवाणु रोगों के कारण पत्तियों ,स्तंभों ,फलों आदि में गोल अथवा अनियमित आकार के धब्बे विकसित होते है ।
2. मृदू विलगन (soft rot) – कुछ जीवाणु ऐसे एंजाइम स्त्रावित करते है जिससे मध्यपट्लिका प्रभावित होती है । और कोशिकाएँ अलग-अलग हो जाती है ।
3. कैंकर व स्कैब – ये पौधों की पत्तियों , शाखाओं व अन्य वायुवीय भागों में पाए जाने वाले कार्की अथवा मस्सेदार अतिवृद्धियाँ (corky or warty outgrowths) है ।
4. संवहन तंत्र रोग – कुछ जीवाणु रोगों से संवहन तंत्र प्रभावित होता है जिसके कारण म्लानि लक्षण प्रकट होते है ।

कुछ प्रमुख जीवाणु रोग (some important bacterial diseases) –
I. सिट्रस कैंकर – यह सिट्रस फलों में सामान्यतः पाया जाता है । भारत, चीन ,जापान तथा जावा में यह रोग महामारी के रूप में फैलता है ।
1. लक्षण – इस रोग में पत्तियों ,शाखाओं, फलों तथा कांटों में अतिवृद्धियों के रूप में धब्बे उत्पन्न होते है , जिन्हें कैंकर कहते है । प्रारंभ में ये धब्बे छोटे होते है और धीरे-धीरे इनका आकार बड़ा जाता है और ये विक्षत हो जाते है ।


2. रोगकारक जीव (Causal organism) – सिट्रस कैंकर रोग जैन्थोमोनास सिट्राई रोगजनक जीवाणु द्वारा होता है । संक्रमित पत्तियों में ये छः माह तक जीवित रहते है ।
3. रोग चक्र (Diseases Cycle) – इस रोग का संरोप (inoculum) रोगिल शाखाओं तथा पत्तियों से प्राप्त होता है । जीवाणु परपोषी में प्राकृतिक छिद्रों तथा घावों से प्रवेश करते है । इसके अन्तराकोशिका अवकाशों में जीवाणु की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है । और ये परपोषी कोशिकाओं की मध्य पटलिका (middle lamella) को गला कर कॉर्टेक्स में स्थापित हो जाते है । इस अवस्था में संक्रमित अंगों पर कैंकर विक्षत होते है । रोग का प्रकीर्णन (dissemination) जल, वर्षा ,कीटाणुओं व मनुष्यों के द्वारा होता है । संक्रमण के लिए नम वातावरण तथा

20 0C से 35 0C तक तापमान आवश्यक है ।
संक्रमित पत्तियों में जीवाणु छः तक जीवित रहते है । निर्जमिकृत मिट्टी (sterilized soil) में ये 52 दिन तक जीवित पाए जाते है । अनिर्जमिकृत मिट्टी (sterilized soil) में इनकी जैविकता केवल 9 से 17 दिन तक होती है ।
4. नियंत्रण – सिट्रस कैंकर रोग का नियंत्रण निम्न तरीकों से किया जा सकता है –
i. रोगिल पौधों को पूरी तरह नष्ट करके ।
ii. प्रतिरोधी किस्मों (resistant varieties) के उपयोग से ।
iii. रोपण से पूर्व पौधों पर 1% बोर्दोमिश्रण (Bordeaux mixture) का छिड़काव करके ।
iv. पौधों पर स्ट्रेप्टोमाइसिन , फाइटोमाइसिन आदि एन्टिबायोटिक का छिड़काव करके ।

II. कपास की जीवाण्विक अंगमारी (Bacterial blight of Coton) – यह रोग विश्व के सभी कपास उत्पादन क्षेत्रों (जैसे मिश्र, सुडान, अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया, रूस ,भारत व अफ्रिका देशों) में सामान्य रूप से पाया जाता है ।
1. लक्षण – इस रोग के जीवाणु पौधे के सभी ऊपरीभूमिक भागों को संक्रमित करते है । इस रोग के लक्षण पादप की अलग-अलग अवस्थाओं में विभिन्न भागों में देखे जा सकते है ।
i) बीज अंकुरण के समय बीजपत्रों की निचली सतह पर गोल ,सूक्ष्म जलसिक्त (water soaked) बिन्दूओं के रूप में प्रकट होते है । संक्रमण फेलने पर बीजपत्र विकृत हो जाते है और अन्ततः नवोदभिद् (seedling) मुरझाकर गिर जाते है ।
ii) पत्तियों में इस रोग के लक्षण कोणीय धब्बों (angular spots) के रूप में प्रकट होते है । अतः यह रोग ‘कपास की पत्ति के कोणीय धब्बे (angular leaf spots of coton) भी कहलाता है । यह रोग पत्तियों में शिराओं के साथ-साथ अंगुलाकार विक्षतों (finger shaped lesions) के रूप में फैलता है । इसी कारण यह रोग शिरा शीर्षता (vein blight) भी कहलाता है । संक्रमण जब पर्णफलक से वृंत की ओर फैलता है तो पत्ति गिर जाती है ।
iii) परपोषी की परिपक्व अवस्था में संक्रमण स्तंभ व फल शाखाओं पर गहरे भूरे अथवा काले विक्षतों के रूप में प्रकट होता है । अनुकूल परिस्थितियों गहरे विक्षतों के कारण परपोषी की अधिकांश शाखाएँ काली पड़ जाती है और पौधा मुरझा जाता है । इन लक्षणों के कारण इस रोग को कृष्ण शाख रोग (black arm diseases) भी कहते है ।
iv) फलों में भी यह रोग काले एवं जलसिक्त धब्बों के रूप में प्रकट होता है । संक्रमित फल अपरिपक्व अवस्था में ही गिरते है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – कपास की जीवाण्विक अंगमारी जैन्थोमोनास माल्वेसिएरम नामक जीवाणु से होती है । ये दंडरूपी , ग्राम नेगेटिव एवं वायुवीय जीवाणु है ।
3. रोग चक्र – जैन्थोमोनास माल्वेसिएरम एक बीजोढ़ (seed borne) जीवाणु है । अतः इसका प्राथमिक संक्रमण बीज द्वारा होता है । इसके अतिरिक्त मिट्टी में गिरे संक्रमित कपास गोलक (cotton bolls), पत्तियाँ व शाखाएँ भी संक्रमण के प्रमुख स्रोत है । द्वितीयक संक्रमण वायु तथा वर्षा व ओस के जल से होता है ।
मिट्टी की सतहल पर ये जीवाणु छः माह तक जीवनक्षम रहते है जबकि मिट्टी में गहराई पर दबे जीवाणुओं की जीवनक्षमता कम होती है । पत्ती में जीवाणुओं का प्रवेश प्रायः रन्ध्रों द्वारा होता है ।
4. रोग नियंत्रण – कपास की जीवाण्विक अंगमारी को निम्न उपायों से नियंत्रित कर सकते है –
i. यह एक बीजोढ़ रोग (seed borne diseases) है अतः इसका नियंत्रण बीजों के उचित उपचार द्वारा किया जा सकता है । बीजों को पहले सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल में 10-15 मिनिट तक रखते है और फिर पानी से धोकर सूखा लेते है । अब बीजों को कार्ब-मरक्यूरिल यौगिक से उपचारित करते है ।
ii. बीजों को स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट आदि एन्टिबायोटिक पदार्थों से उपचारित करने पर बाह्य तथा आंतरिक दोनों प्रकार के संक्रमण दूर किये जा सकते है ।
iii. बीजों को गरम जल (56 0C) से 10 मिनिट तक उपचारित करने से बाह्य तथा आंतरिक संक्रमण दूर हो जाते है ।
iv. बीजों में जीवाणु एक वर्ष तक जीवनक्षम रहते है अतः दो वर्ष पुराने बीज बोने से इसके द्वारा संक्रमण की संभावना कम हो जाती है ।
v. रोग प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग भी रोग निवारण की एक प्रमुख विधि है । कपास की दो जातियों गॉसिपियम हर्बेसियम व गॉसिपियम आर्बोरियम इस रोग से पूर्णतः परिरक्षित है ।

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