Viral Diseases of Plants in Hindi
पौधों के विषाणु रोग
I. आलू का पर्ण वेल्लन रोग (Leaf roll disease of Potato) – आलू का पर्ण वेल्लन रोग (Leaf roll ) आर्थिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण रोग है तथा आलू की फसल के नष्ट होने का एक प्रमुख कारण है । यह उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में सामान्य रूप से पाया जाता है ।
1. रोग लक्षण (Disease Symptoms) – इस रोग के लक्षण निम्न है –
i. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस रोग का प्रमुख लक्षण पत्तियों के उपांतों का वेल्लन (rolling of leaf margins) है । पत्ती के उपांतों के मुड़ने से एक नाली अथवा द्रोण (trough) सदृश्य संरचना बन जाती है । तथा मध्यशिरा (mid-rib) द्रोण की तली में स्थित होती है ।
ii. संक्रमित कंदों (Tubers) से उत्पन्न पौधों में पर्ण वेल्लन के लक्षण सर्वप्रथम आधारीय पर्णकों (basal or lower leaflets) में प्रकट होते है और धीरे-धीरे पूरे पौधे की पत्तियाँ वेल्लित हो जाती है । आलू की अनेक किस्मों में पत्तियों के उपांत तथा शीर्ष पीले पड़ने लगते है ।
iii. संक्रमित पत्तियाँ स्वस्थ पत्तियों की तुलना में अधिक दृढ़ (rigid), मोटी , भंगुर (brittle) व चर्मिल (leathery) होती है । पत्तियों में भंगुरता तथा वेल्लन इनके खंभ उत्तक में कार्बोहाइड्रेट्स के अधिक मात्रा में एकत्र होने के कारण होते है ।
iv. संक्रमित कंदों से उत्पन्न पौधों के पर्व (internodes) छोटे होते है । जिसके कारण पौधे वामन (dwarf) हो जाते है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – इस रोग का कारक पर्ण वेल्लन विषाणु (leaf roll virus) है , जिसे आलू विषाणु I (Potato virus I) अथवा सोलेनम विषाणु 14 (Solanum virus 14) भी कहते है ।
3. संचरण (Transmission) – प्रकृति में इस रोग के विषाणुओं का संचरण संक्रमित कंदों (infected tubers) तथा कीटों (insects) के माध्यम से होता है । माइजस पर्सीकी नामक ऐफिड इस रोग का प्रमुख वाहक है ।
4. क्षति (Damage) – इस रोग के संक्रमण के कारण प्रति पौधे की पैदावर व कंदों के आमाप में अत्यधिक कमी हो जाती है । जिसके फलस्वरूप आलू का व्यापारिक मूल्य कम हो जाता है ।
5. रोग नियंत्रण (Disease control) –
i. केवल प्रमाणित बीजों (certified seeds) का प्रयोग करने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।
ii. कासानिस के अनुसार कंदों को 20-25 दिन तक आर्द्र वातावरण में 37.5 0C तापमान में रखने पर कंद पर्ण वेल्लन विषाणुओं (leaf roll viruses) से मुक्त हो जाते है ।
II. पपीते का पर्ण कुंचन रोग (leaf curl of papaya)- यह रोग बिहार ,उत्तरप्रदेश ,दिल्ली ,मध्यप्रदेश आदि अनेक राज्यों में सामान्य रूप से पाया जाता है ।
1. रोग लक्षण (Disease Symptoms) –
i. पत्तियों का व्याकुंचन (crinkling), कुंचन (curling) ,शिरा उद्भासन (vein clearing) तथा आमाप में कमी इस रोग के प्रमुख लक्षण है ।
ii. संक्रमित पत्तियाँ चर्मिल व भंगुर हो जाती है तथा अंतराशिरीय क्षेत्रों (interveinal areas) में अतिवृद्धि (hypertrophy) के कारण इनकी उपरी सतह पर उभार उत्पन्न हो जाते है ।
iii. कभी-कभी रोग के लक्षण पौधे के शीर्ष पर उपस्थित सभी पत्तियों में दिखाई देते है तथा पर्णवृंत टेढ़े-मेढ़े हो जाते है ।
iv. संक्रमित पौधों में प्रायः पुष्प व फल नहीं पाए जाते है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – यह रोग तंबाकू विषाणु-16 (Tobacco virus-16) अथवा निकोटिआना विषाणु-10 (Nicotiana virus-10) के संक्रमण से होता है ।
3. संचरण (Transmission) – इनका संचरण प्रायः रोपण (grafting) अथवा रस संरोपण (sap inoculation) द्वारा होता है । प्रकृति में बेमीशिया टेबेकी नामक मक्खी इस विषाणु की प्रमुख वाहक है । इस रोग के विषाणुओं का यांत्रिक संचरण (mechanical transmission) नहीं होता है ।
4. रोग नियंत्रण (Disease control) – पपीते की पर्ण कुंचन को नियंत्रित करने की कोई उपयुक्त विधि ज्ञात नहीं है । एक बार संक्रमित होने के पश्चात् पौधे फिर से स्वस्थ नहीं हो पाते है तथा इनका संक्रमण अन्य स्वस्थ पौधों में फैलता है । अतः रोग के लक्षण प्रकट होते ही पौधों को मिट्टी से निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए ।
III. भिन्डी का पीत शिरा किर्मीर (मौज़ेक) रोग (yellow vein mosaic of bhindi) – पीत शिरा किर्मीर भिन्डी (Abelmoschus esculentus) का एक प्रमुख रोग है । हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग सभी क्षेत्रों में भिन्डी की फसल इससे संक्रमित होती है । भारतवर्ष में यह रोग सबसे पहले 1940 में मुम्बई में देखा गया था ।
1. रोग लक्षण (Disease Symptoms) –
i. शिरा उद्भासन (vein clearing) तथा हरिमाहीनता (vein chlorosis) इस रोग के प्रमुख लक्षण है ।
ii. तीव्र संक्रमण की दशा में हरिमाहीनता अंतराशिरीय क्षेत्रों (interveinal regions) में भी फैल जाती है ।
iii. संक्रमित पौधे के फल छोटे व कुरचित (बेडौल) होते है तथा पैदावर घटकर केवल 8-10 प्रतिशत रह जाती है ।
iv. यदि पौधों में संक्रमण पुष्पन से पूर्व ही हो जाता है तो फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – इस रोग का कारक पीत शिरा मौज़ेक विषाणु (yellow vein mosaic virus = YVMV) अथवा हिबिस्कस वाइरस -I (Hibiscus virus-I) है ।
3. संचरण (Transmission) – इस रोग का संचरण बेमेशिया टेबेकी नामक श्वेत मक्खी से होता है । इसके अतिरिक्त भिन्डी पात फुदक (bhindi leaf hopper) भी रोग फैलाने में सहायक होता है ।
4. रोग नियंत्रण (Disease control) –
i. इस रोग के नियंत्रण की कोई प्रभावकारी विधि नहीं है । परन्तु श्वेत मक्खी ,पात फुदक व अन्य रोग वाहकों से फसल को बचाकर रोग को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है ।
ii. नियंत्रण के लिए फसल में फॉलिडाल ,इकाटॉक्स अथवा रॉगोर छिड़का जाता है ।
iii. इसके अतिरिक्त एकान्त परपोषी (खरपतवार) के उन्मूलन (eradication of alternate host) एवं रोगप्रतिरोधी किस्मों के उपयोग से भी रोग को नियंत्रित किया जा सकता है ।