Hindi science

Covered smut disease of Barley in Hindi || A Fungal disease of Barley

जौ का आवृत कंड रोग

जौ का आवृत कंड रोग (Covered smut disease of Barley) – जौ का आवृत कंड रोग से भारत के उत्तरी क्षेत्र में फसल व्यापक रूप से संक्रमित होती है तथा प्रतिवर्ष रोग से फसल को बहुत हानि होती है ।
1. रोग लक्षण (Disease symptoms)


i. इस रोग के लक्षण केवल पुष्पक्रम विकसित होने पर ही प्रकट होते है ।
ii. संक्रमित बालियाँ (ears) स्वस्थ बालियों की तुलना में छोटी होती है ।
iii. फसल के पकने पर लक्षण और अधिक स्पष्ट हो जाते है ,इस अवस्था में संक्रमित बालियों का रंग काला होता है क्योंकि अनाज के कण की भित्ति के अन्दर बहुत अधिक संख्या में क्लैमिडोबीजाणु (Chlamydospores) होते है । इन बीजाणुओं के बीच में वसीय पदार्थ जमा रहते है जिसके कारण ये आपस में चिपक कर एक पिण्ड बना लेते है ।
iv. फसल की थ्रेसिंग के समय अनाज कण भित्ति (grain wall) के टूटने पर क्लैमिडोबीजाणु मुक्त हो जाते है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – जौ का आवृत कंड रोग का कारक आस्टिलैगो हार्डियाई (Ustilago hordei) नामक कवक है । इसके क्लैमिडोबीजाणु गोल अथवा चपटे होते है उनका व्यास 15 माइक्रोमीटर तक होता है ।
अन्न कण से मुक्त होने पर ये तुरन्त अंकुरित होते है और प्रत्येक बीजाणु एक 4-कोशिकीय प्रोमाइसिलियम बनाता है । प्रोमाइसिलियम के प्रत्येक पट व शीर्ष पर बेसीडियोबीजाणु (Basidiospores) बनते है । बेसीडियोबीजाणु अंकुरित होने पर एक संक्रमण सूत्र (infection thread) अथवा कवकतंतु बनाते है जिसकी वृद्धि से परपोषी में विस्तृत कवकजाल बनता है ।
3. रोग-चक्र (Disease cycle) –
i. इस कवक के क्लैमिडोबीजाणु अन्नकण में बनते है । अतः बीज में उपस्थित बीजाणु संक्रमण के मुख्य स्रोत है ।
ii. जब संक्रमित बीज खेत में अंकुरित होते है तो उसमें उपस्थित बीजाणु भी अकुंरित होकर कवकतंतु बनाते है । और परपोषी के भ्रूण को भेदकर प्रांकुरचोल (Coleoptile) में प्रवेश करते है ।
iii. एक बार परपोषी को संक्रमित करने के पश्चात् कवकजाल इसके विभिन्न अंगों के अंतरकोशिक अवकाशों में तेज वृद्धि करता है और चूषकांगों द्वारा परपोषी से अपना पोषण प्राप्त करता है ।
iv. परपोषी में पुष्पक्रम के समय कवकजाल की वृद्धि में तीव्रता आ जाती है । और अनन्तः यह पुष्पक्रम में बन रहे भ्रूणीय स्पाइकिकाओं (embryonic spikelets) को संक्रमित करता है और स्पाइकिकाओं में स्थित पुष्पों की अपरिपक्व अण्डाशयों में कवकतंतुओं का जाल बना देता है ।
v. कवकतंतु की कोशिकाएँ विभाजित होकर क्लैमिडोबीजाणु बनाती है । चूँकि ये कवकतंतु परपोषी की बाह्यत्वचा को विघटित नहीं करते है । अतः बीजाणु अन्नकण की भित्ति में बन्द रहते है ,इसी कारण इनका प्रकीर्णन वायु द्वारा नहीं होता है और केवल थ्रेसिंग के समय ये मुक्त होते है ।
बीजाणुओं द्वारा नवोद्भिद का संक्रमण मुख्यतः मिट्टी की आर्द्रता व ताप पर निर्भर करता है । 20 0C तापमान बीजाणुओं के अंकुरण के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है ।
4. रोग नियंत्रण (Disease control) – रोग नियंत्रण निम्न उपायों द्वारा किया जा सकता है-
i. चूँकि कंड रोग का संरोप (inoculum) में बीज में होता है अतः बीज का सेरेसान (ceresan) व एग्रोसान (agrosan) द्वारा उचित उपचार करके रोग पर प्रभावकारी नियंत्रण किया जा सकता है ।
ii. सल्फर पाउडर का छिड़काव भी रोग नियंत्रण में उपयोगी है ।
iii. इसके अतिरिक्त जौ कि अनेक किस्में ,जैसे K-12, K-18, K-19, C-50, C-84 तथा C-294 कंड प्रतिरोधी है ।

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