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Classification of Plants part-1 #पादपों का वर्गीकरण

पादपों का वर्गीकरण 

⦁ वनस्पति विज्ञान (Botany) – विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों तथा उनके क्रियाकलापों के अध्ययन को वनस्पति विज्ञान कहते हैं ।
थियोफ्रेस्टस (Theophrastus) को वनस्पति विज्ञान का जनक कहा जाता है ।
⦁ पादपों का वर्गीकरण (Classification of plants) – एकलर (Eichler) ने 1883 ई. में वनस्पति जगत का वर्गीकरण निम्न रूप से किया है –

⦁ अपुष्पोद्भिद् पौधा (Cryptogamus) – इस वर्ग के पौधों में पुष्प तथा बीज नहीं होते हैं । इन्हें निम्न समूह में बांटा गया है –

1. थैलोफाइटा (Thelophyta) – यह वनस्पति जगत का सबसे बड़ा समूह है । इस समूह के पौधों का शरीर सुकाय (Thalus) होता है ,अर्थात् पौधे जड़, तना एवं पत्ती आदि में विभक्त नहीं होते हैं । इसमें संवहन उत्तक नहीं होता है । इसमें निम्न भाग सम्मिलित हैं –

I. शैवाल (Algae) – शैवालों के अध्ययन को फाइकोलॉजी (Phycology) कहते हैं । ये प्रायः पर्णहरित युक्त, संवहन उत्तक रहित, स्वपोषी (Autotrophic) होते हैं । इनका शरीर सुकाय सदृश होता है ।
लाभदायक शैवाल
i. भोजन के रूप में फोरफाइरा, अल्वा, सारगसम, लेमिनेरिया, नॉस्टॉक आदि का उपयोग किया जाता है ।
ii. आयोडीन बनाने में लेमिनेरिया, फ्यूकस, एकलोनिया आदि का उपयोग किया जाता है ।
iii. खाद के रूप में नॉस्टॉक , एनाबीना, केल्प आदि का उपयोग किया जाता है ।
iv. क्लोरेला से क्लोरेलिन नामक प्रतिजैविक एवं लेमिनेरिया से टिंचर आयोडीन नामक औषधियाँ बनाई जाती है ।
v. अनुसंधान कार्यों में क्लोरेल, एसीटेबुलेरिया , बेलोनिया आदि का उपयोग किया जाता है ।
नोट – क्लोरेला (Chlorella) नामक शैवाल को अतंरिक्ष यान के केबिन के हौज में उगाकर अंतरिक्ष यात्री को प्रोटीनयुक्त भोजन , जल और ऑक्सीजन प्राप्त हो सकते हैं ।

II. कवक (Fungi)
i. कवकों के अध्ययन की शाखा को कवक विज्ञान (Mycology) कहा जाता है ।
ii. कवक पर्णहरित रहित, संकेन्द्रीय, संवहन उत्तक रहित थैलोफाइट हैं । मशरूम कवक है ।
iii. कवक में संचित भोजन ग्लाइकोजन के रूप में रहता है ।
iv. इनकी कोशिकाभित्ति काइटिन (chitin) की बनी होती है ।
v. सैकेरोमाइसेस नामक कवक डबल रोटी के निर्माण में प्रयोग किया जाता है ।
vi. कवक पौधों में गंभीर रोग उत्पन्न करते हैं । सबसे अधिक हानि रस्ट (Rust) और स्मट (Smut) से होती है ।
पौधों में कवक के द्वारा होने वाले रोग निम्न हैं – सरसों का शफेद रस्ट (White rust of crucifer) , गेहूँ का ढ़ीला स्मट (loose smut of wheat), गेहूँ का किट्ट रोग (Rust of wheat), आलू की अंगमारी (Blight of potato), गन्ने का लाल अपक्षय रोग (Red rot of sugarcane) , मूँगफली का टिक्का रोग (Tikka diseases of ground nut) , आलू का मस्सा रोग (Wart disease of potato), धान की भूरी अर्ज चित्ति (Brown leaf spot of Rice) , आलू का पछेती अंगमारी (Late Blight of potato), प्रांकुरों का डैंपिंग रोग (Damping off of seedings) ।

मानव में होने वाले कवक रोग –
1. दमा एस्पर्जिलस फ्यूमिगेट्स
2. एथलीट फूट टीनिया पेडिस
3. खाज एकेरस स्केबीज
4. गंजापन टीनिया केपिटिस
5. दाद ट्राइकोफायटान लेसकोसय
नोट – एफ्ला नामक विष कवक से बनते हैं ।

III. लाइकेन
लाइकेन – यह कवक तथा शैवाल दोनों से मिलकर बनती हैं । इसमें कवक तथा शैवालों का संबंध परस्पर सहजीवी (Symbiotic) जैसा होता है । कवक, जल, खनिज लवण, विटामिन्स आदि शैवाल को देता है और शैवाल प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण कर कवक को देता है । कवक एवं शैवाल के बीच इस तरह के सहजीवी संबंध को हेलोटिज्म (Helotism) कहते हैं ।
i. लाइकेन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ग्रीक दार्शनिक थियोफ्रेस्टस ने किया ।
ii. लाइकेन का अध्ययन लाइकेनोलॉजी (Lichenology) कहलाता है ।
iii. आकार एवं संरचना के आधार पर लाइकेन को तीन वर्गों में विभाजित किया है, ये हैं – 1. क्रस्टोस 2. फोलिओज 3. फ्रूटीकोज ।
iv. लाइकेन में प्रजनन तीन प्रकार से होता है – कायिक, लैंगिक एवं अलैंगिक
v. लाइकेन वायु प्रदूषण के संकेतक होते हैं । जहाँ वायु प्रदूषण अधिक होता है , वहाँ लाइकेन नहीं उगते हैं । SO2 (सल्फर डाइऑक्साइड) प्रदूषण का सर्वोत्तम सूचक है ।
vi. पेड़ों की छालों पर उगने वाले लाइकेन को कोर्टीकोल्स (Corticoles) तथा खाली चट्टानों पर उगने वाले लाइकेन को सेक्सीकोल्स (Sexicoles) कहते हैं ।
vii. लाइकेन मृदा निर्माण की प्रक्रिया में सहायक होता है ।
viii. आर्चिल, लेकनोरा जैसे लाइकेन से नीला रंग प्राप्त किया जाता है ।
ix. प्रयोगशाला में प्रयोग होने वाला लिटमस पेपर रोसेला (Rocella) नामक लाइकेन से प्राप्त किया जाता है ।
x. लेबेरिया, इरवेनिया, रेमेनिला आदि लाइकेन का उपयोग इत्र बनाने में किया जाता है ।
xi. परमेलिया सेक्सटिलिस का उपयोग मिरगी की दवा बनाने में किया जाता है ।
xii. असनिया नामक लाइकेन से प्रति-जैविक असनिक अम्ल प्राप्त किया जाता है ।
xiii. डायरिया, हाइड्रोफोबिया, पीलिया, काली खाँसी आदि रोगों में उपयोगी कई प्रकार की औषधियाँ लाइकेन से बनायी जाती है । कई लाइकेन खाद्य पदार्थ के रूप में प्रयोग किए जाते हैं । रेन्डियर मॉस या क्लेडोनिया को आर्कटिक भाग में भोजन के रूप में प्रयोग किया जाता है । आइसलैंड मॉस को स्वीडेन, नार्वे तथा आइसलैंड जैसे यूरोपीय देशों में केक बनाने में उपयोग लाया जाता है । जापान के निवासी इन्डोकार्पन (Endocarpan) का उपयोग सब्जी के रूप में करते हैं । द. भारत में परमेलिया का उपयोग सालन (Curry) बनाने में किया जाता है ।

IV. जीवाणु (Bacteria)
i. इसकी खोज 1683 ई. में हॉलैंड के एण्टोनीवान ल्यूवेनहॉक ने की ।
ii. जीवाणु विज्ञान का पिता ल्यूवेनहॉक को कहा जाता है ।
iii. एहरेनबर्ग (Ehrenberg) ने 1829 ई. में इन्हें जीवाणु नाम दिया ।
iv. 1843-1910 ई. में रॉबर्ट कोच ने कॉलेरा तथा तपेदिक के जीवाणुओं की खोज की तथा रोग का जर्म सिद्धांत बताया ।
v. 1812-1892 ई. में लुई पाश्चर ने रेबीज का टीका, दूध के पाश्चुराइजेशन की खोज की ।
vi. आकृति के आधार पर जीवाणु कई प्रकार के होते हैं –

1. छड़ाकार या बैसिलस (Bacillus) – यह छड़ानुमा या बेलनाकार होता है ।


2. गोलाकार या कोकस (Cocus) – ये गोलाकार एवं सबसे छोटे जीवाणु होते हैं ।


3. कोमा-आकार (Comma shaped) या विब्रियो (Vibrio) – ये अंग्रेजी के चिन्ह कोमा () के आकार के होते हैं । उदाहरण – विब्रिया कॉलेरी आदि ।


4. सर्पिलाकार (Spirillum) – ये स्प्रिंग या स्क्रू के आकार के होते हैं ।


vii. दूध के अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने के लिए इसका पाश्चीकरण () करते हैं । इसमें दो विधियाँ होती हैं –
1. Low Temperature Holding Method (LTH) – दूध को 62.80 C पर 30 मिनिट तक गरम करते हैं ।
2. High Temperature Short Time Method (HTST) – दूध को 71.70 C पर 15 सैकेण्ड तक गरम करते हैं ।
viii. एनाबीना () तथा नॉस्टॉक () नामक सायनोबैक्टिरिया वायुमंडल की N2 का स्थिरीकरण करते हैं ।
ix. राइजोबियम तथा ब्रैडीराइजोबियम इत्यादि जीवाणु की जातियाँ लैग्यूमिनोसी (मटर कुल) के पौधे की जड़ों में रहती हैं और वायुमंडलीय N2 का स्थिरीकरण करते हैं ।
x. एजोटोबैक्टर (Azotobacter) ,एजोस्पाइरिलम (Azospirillum) तथा क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium) जीवाणु की कुछ जातियाँ स्वतंत्र रूप से मिट्टी में निवास करती हैं व मिट्टी के कणों के बीच स्थित वायु के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती हैं ।
xi. चर्म उद्योग में चमड़े से बालों और वसा हटाने का कार्य जीवाणुओं के द्वारा होता है । इसे चमड़ा कमाना (Tanning) कहते हैं ।
xii. आचार, मुरब्बे, शर्बत को शक्कर की गाढ़ी चासनी में या अधिक नमक में रखते हैं ताकि जीवाणुओं का संक्रमण होते ही जीवाणुओं का जीव द्रव्यकुंचन (Plasmolyse) हो जाता है तथा जीवाणु नष्ट हो जाते हैं ,इसलिए आचार ,मुरब्बे बहुत अधिक दिनों तक खराब नहीं होते हैं ।
xiii. शीत संग्रहागार (Cold Storage) में न्यून ताप (-100 C से -180 C) पर सामग्री का संग्रहण करते हैं जिससे ये जीवाणुओं से संक्रमित नहीं होते हैं ।

V. विषाणु – विषाणु की खोज रूस के वैज्ञानिक इवानविस्की ने 1892 ई. में की (तम्बाकु के मोजैक रोग पर खोज के समय) । इनकी प्रकृति सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार की होती है । इसी कारण इन्हें सजीव और निर्जीव की योजक कड़ी भी कहा जाता है ।

विषाणु के निर्जीव होने के लक्षण –
1. ये कोशा रूप में नहीं होते हैं ।
2. इनको क्रिस्टल बनाकर निर्जीव पदार्थ की भाँति बोतलों में भरकर वर्षों तक रखा जा सकता है ।

विषाणु के सजीव जैसे लक्षण –
1. इनके न्यूक्लिक अम्ल का द्विगुणन होता है ।
2. किसी जीवित कोशिका में पहुँचते ही ये सक्रिय हो जाते हैं, और एंजाइमों का संश्लेषण करने लगते हैं ।

परपोषी प्रकृति के अनुसार विषाणु तीन प्रकार के होते हैं –
1. पादप विषाणु – इसके न्युक्लिक अम्ल में RNA होता है ।
2. जंतु विषाणु – इसके न्युक्लिक अम्ल में DNA या कभी-भी RNA भी पाया जाता है ।
3. बैक्ट्रियोफेज या जीवाणुभोजी – ये केवल जीवाणुओं पर आश्रित रहते हैं । ये जीवाणुओं को मार डालते हैं । इनमें DNA पाया जाता है । जैसे टी-2 फेज ।
नोट – जिन विषाणुओं में RNA आनुवांशिक पदार्थ होता है , उसे रेट्रोविषाणु कहते हैं ।

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