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Classification of kingdom Protista in Hindi

प्रोटिस्टा जगत का वर्गीकरण

(Classification of kingdom Protista)

प्रोटिस्टा जगत – सभी एक कोशिक यूकैरियोटिक जीव प्रोटिस्टा जगत के अन्तर्गत आते है । यूकैरियोटिक होने के कारण इनकी कोशिका में एक सुसंगठित केन्द्रक तथा अन्य झिल्ली परिबद्ध कोशिकांग पाए जाते है ।
कुछ प्रोटिस्टा में कशाभ एंव पक्ष्माभ भी पाए जाते है । प्राथमिक रूप से इस जगत के सदस्य जलीय होते है ।
इनमें अलैंगिक जनन द्विखण्डन एंव बीजाणु निर्माण की प्रक्रिया द्वारा होता है । लैंगिक जनन कोशिका संलयन एवं युग्मनज (जाइगोट) बनने की विधि द्वारा होता है । लैंगिक जनन समयुग्मकी ,विषमयुग्मकी एवं अण्डयुग्मकी प्रकार का होता है ।

प्रोटिस्टा मे पोषण – इनमें चार प्रकार का पोषण पाया जाता है –
i) होलोफाइटिक(पादप सम पोषण) (प्रकाशसंश्लेषी) – ये अपने भोजन का निर्माण प्रकाश संश्लेषण से करते है ।
ii) होलोजोइक (जीव सम पोषण) – यहाँ पोषण से पहले भोजन का अन्तः ग्रहण होता है । और फिर इस भोजन का पाचन होता है ।
iii) अवशोषणी पोषण – यहाँ पहले भोजन का पाचन होता है और फिर अन्तः ग्रहण होता है । इसमें कार्बनिक पदार्थों को एंजाइम स्त्रावित करके पचाया जाता है और फिर अन्तः ग्रहण किया जाता है ।
iv) मिक्सोट्रोफी – कुछ जीवों में पादप सम एवं मृतोपजीवी , दोनों तरह को पोषण पाया जाता है इसे ही मिक्सोट्रोफी कहते है ।

प्रोटिस्टा के मुख्य समूह –
I. क्राइसोफाइट
II. डायनोफ्लेजिलेट
III. युग्लीनॉयड
IV. अवपंक कवक
V. प्रोटोजोआ
I. क्राइसोफाइट – इसे बेसिलेरियोफाइटा भी कहते है । इस समूह के अन्तर्गत डायटम एवं सुनहरे शैवाल (डैस्मिड) आते है । इन्हें समुद्र के मोती या आभूषण भी कहते है । इस समूह के सदस्य अलवणीय एवं लवणीय दोनों में पाए जाते है । ये समुद्र के मुख्य उत्पादक है ।

संरचना – अ) डायटम विभिन्न आकृतियों जैसे गोलाकार , आयताकार , त्रिकोणाकार ,नाव जैसे पाए जाते है । इनकी कोशिका भित्ति सेल्यूलोज की बनी होती है । जिसमें सिलिका के कण बीच-बीच में धँसे पाए जाते है । इस सिलिका युक्त कोशिका भित्ति को Shell / Frustule कहते है । इनकी कोशिका भित्ति दो अर्धांश से मिलकर बनी होती है जो एक साबुन की डिब्बी के समान व्यवस्थित रहते है ।

ब) डायटम की कोशिका भित्ति में सिलिका अत्यधिक मात्रा में पाए जाने के कारण इन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता है । समुद्र के तल में मृत डायटम की विशाल काय चट्टाने बन गयी है । जिन्हें डायटोमाइट या डायटमी मृतिका(मृदा) या केशुलगर कहते है ।
स) डायटम में एक द्विगुणित केन्द्रक पाया जाता है । डायटम की कोशिका भित्ति में हरितलवक होता है जिसमें निम्न वर्णक – क्लोरोफिल-a, क्लोरोफिल-c, जेन्थोफिल पाए जाते है ।
द) डायटम में संचित भोजन ल्यूकोसीन (क्राइसोलेमिनेरिन) एवं वसा होती है

डायटम के उपयोग –
i. ध्वनि अवशोषक के रूप में ।
ii. तेल तथा सीरप के निस्यंदन में ।
iii. पत्थर की पॉलिश करने में ।
iv. स्टीम बॉयलर में तापरोधी के रूप में ।

II. डायनोफ्लेजिलेट – ) इस समूह के सदस्यों में दो कशाभिकाएँ पायी जाती है । जिसमें एक लंबवत तथा दूसरी अनुप्रस्थ रूप से भित्ति पट्टिकाओं के बीच खाँच में उपस्थित होती है ।
ब) इस समूह को पाइरोफइटा या अग्निशैवाल भी कहते है । ये जीवधारी मुख्यतः समुद्री एवं प्रकाशसंश्लेषी होते है । इनमें उपस्थित प्रमुख वर्णकों के आधार पर ये जीव पीले ,हरे , लाल ,भूरे ,नीले दिखाई देते है ।
स) इनकी कोशिका भित्ति के बाह्य सतह पर सेल्यूलोज की कड़ी पट्टिकएँ होती है ।
द) प्रायः लाल डायनोफ्लैजिलेट की संख्या में विस्फोट होता है जिससे समुद्र का जल लाल रंग का दिखाई देने लगता है । इस प्रक्रिया को Red-tide (लाल तरंग) कहते है और कुछ लोग इसे रेड-सी कहते है । उदाहरण – गॉनियोलैक्स ।
इतनी बड़ी संख्या के जीव से निकले जैव विष के कारण मछली तथा अन्य समुद्री जीव मर जाते है इसे साक्सिटोक्सिन (Saxitoxin) कहते है ।

डायनोफ्लैजिलेट के विशिष्ट लक्षण –
i. हरित लवक की उपस्थिति के कारण पोषण पादप सम (होलोफाइटिक) होता है ।
ii. अधिकांश डायनोफ्लैजिलेट जैव प्रदीप्ति प्रदर्शित करते है । इनके कोशिकाद्रव्य में प्रकाशीय कणिकाएँ पाई जाती है । ये कणिकाएँ ल्यूसीफेरिन प्रोटीन की बनी होती है । और जब इस प्रोटीन का ऑक्सीकरण होता है तो ऊर्जा उत्पन्न होती है । जो रात्रि में प्रकाश के रूप में उत्सर्जित होती है । इसे जैव प्रदीप्ति कहते है । पाइरोसिस्टीस ,नॉक्ट्यूलूका ।
iii. जिम्नोडिनियम एवं गोनियोलैक्स के द्वारा विषैले पदार्थ (Saxitoxin) स्त्रावित होते है ।
iv. नोक्ट्यूलूका को समुद्री भूत कहते है क्योंकि यह रात को चमकता है । यह रंगहीन होता है जो इस समूह का अपवाद है । इसमें क्लोरोप्लास्ट अनुपस्थिति होतो है अर्थात् पोषण जन्तुसम(होलोजॉइक) होता है ।

संरचना –
a. सेल्यूलोजिक कोशिका भित्ति पट्टिकाओं में विभाजित होती है । इस कारण डायनोफ्लैजिलेट कवच युक्त दिखाई देते है । इन्हें कवच युक्त शैवाल (shelled algae) नाम दिया गया है ।
b. इनकी कोशिका भित्ति में एक अगुणित केन्द्रक होता है जिसमें हिस्टोन प्रोटीन अनुपस्थित होता है । अतः डायनोफ्लैजिलेट को मीजोकेरियोट भी कहते है । इनकी कोशिका भित्ति में एक परासरण नियंत्रणकारी संरचना होती है जिसे Pusul कहते है ।
c. डायनोफ्लैजिलेट में निम्न वर्णक – क्लोरोफिल-a, क्लोरोफिल-c, जेन्थोफिल पाए जाते है जिसके कारण इनका रंग सुनहरा-भूरा होता है । इस समूह के सदस्यों में भोजन का संचय स्टार्च के रूप में होता है ।

III. युग्लीनॉयड – अ) इनमें अधिकांश सदस्य स्वच्छ जल में पाए जाते है । इन जीवों में कोशिकाभित्ति की जगह एक प्रोटीन युक्त पदार्थ की पर्त पेलिकल होती है । जो इन जीवों की संरचना को लचीला बनाती है ।
ब) सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में ये जीव प्रकाशसंश्लेषी होते है लेकिन प्रकाश की अनुपस्थिति में अन्य जीवधारियों का शिकार करके परपोषी की तरह व्यवहार करते है । अतः स्पष्ट है कि इन जीवों में मिश्र पोषण (मिक्सोट्रॉपिक) पाया जाता है । इस कारण इन्हें पादप एवं जन्तु के बीच की योजक कड़ी माना जाता है । इनमें पाए जाने वाले वर्णक उच्च पादपों में उपस्थित वर्णकों के समान होते है । उदाहरण – युग्लीना
संरचना –


i. इस समूह के सदस्य एककोशिकीय होते है । इनमें कोशिका भित्ति अनुपस्थित होती है । ये जीव चारो ओर से एक झिल्ली से घिरे होते है जो लाइपोप्रोटीन की बनी होती है ।
ii. युग्लीनॉइड्स के अग्र सिरे पर एक गुहा पाई जाती है जिसे कोशिकाग्रसनी (साइटोफेरिंग्स या आशय) कहते है । आशय के आधार से एक क्रियाशील एवं एक अक्रियाशील फ्लेजेला पाई जाती है ।
iii. इनमें एक अगुणित केन्द्रक होता है । इस समूह में क्लोरोफिल-a एवं b तथा जेंथोफिल होते है । युग्लीना में संचित भोजन पेरामाइलम होता है । यह स्टार्च के रूपांतरण से बनता है ।
Wriggling Movement – जो युग्लीनॉइड कशाभिका युक्त होते है वे कशाभिका द्वारा गति करते है । जिनमें कशाभिका नहीं होती है वे तरंगीय गति दर्शाते है जिसमें पेलिकल सहायक होती है इसे ही Wriggling Movement कहते है ।

IV. अवपंक कवक (आभासी कवक) (False fungi or mixomycetes) –
अ) ये सजीव अपनी कायिक प्रावस्था के समय श्लेष्मीय समूह के रूप में उत्पन्न होते है । अतः इन्हें अवपंक कवक कहते है ।
ब) अवपंक कवक मृतोपषी / मृतोपजीवी प्रोटिस्टा है । ये सड़ती हुई टहनियों तथा पत्तों के साथ गति करते हुए जैविक पदार्थों का भक्षण करते है । अनुकूल परिस्थितियों ये समूह (प्लाज्मोडियम) है जो कई फीट लंबाई का हो सकता है ।
प्रतिकूल परिस्थितियों में ये बिखरकर सिरों पर बीजाणु युक्त फलनकाय बनाते है । इन बीजाणुओं का परिक्षेपण वायु के साथ होता है । इस समूह के जीवों में कवक एवं जन्तु दोनों के लक्षण पाए जाते है , अतः इन्हें फंग्स एनिमल भी कहते है ।

संरचना – श्लाइमोल्ड के चारों तरफ कोशिका भित्ति अनुपस्थित होती है अतः इनकी आकृति निश्चित नहीं होती है ।
अवपंक कवक की श्लेषमीय बीजाणुधानी को Capilitium कहते है । अवपंक कवक में भोजन संग्रहण ग्लाइकोजन एवं तेल के रूप में होता है ।
ये संरचना के आधार पर दो प्रकार को होते है –
i) अकोशिकीय अवपंक कवक – ये प्रतिकूल परिस्थितियों में बिखरकर सिरों पर बीजाणु युक्त फलनकाय बनाते है। इनका परिक्षेपण वयु के साथ होता है । ये द्विगुणित होते है । इनमें लैंगिक जनन युग्मकीय अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा होता है । उदाहरण – फाइसैरम
ii) कोशिकीय अवपंक कवक – ये जीव अगुणित होते है । प्रत्येक कोशिका में केंद्रक अगुणित होता है । इनमें लैंगिक जनन जाइगोटिक मिओसिस द्वारा होता है । उदाहरण – प्रोटोस्टोलियम

V. प्रोटोजोआ – सभी प्रोटोजोआ परपोषी होते है जो परभक्षी अथवा परजीवी के रूप में रहते है । ये प्राणियों के पुरातन संबंधी है । इन्हें चार समूह में बांटा गया है –
i) अमीबॉइड(अमीबीय प्रोटोजोआ) – ये जीवधारी स्वच्छ जल, समुद्री जल तथा नम मृदा में पाए जाते है । ये अपने कूटपादों की सहायता से अपने शिकार को पकड़ते है । इनके समुद्री प्रकारों की सतह पर सिलिका के कवच होते है । इनमें कुछ जैसे एंटअमीबा परजीवी होते है ।
ii) फ्लैजिलेटेड (कशाभी प्रोटोजोआ) – इस समूह के सदस्य स्वच्छंद एवं परजीवी होते है । इनके शरीर पर कशाभ पाया जाता है । परजीवी कशाभी प्रोटोजोआ बीमारी के कारण होते है । इनमें सिलिका के कवच का अभाव होता है । निद्रालु व्याधी नामक बीमारी ट्रिपैनोसोमा के द्वारा होती है ।
iii) सिलियेटेड (पक्ष्माभी प्रोटोजोआ) – ये सदस्य जलीय तथा अत्यंत सक्रीय गति करने वाले जीवधारी है क्योंकि इनके शरीर पर हजारों की संख्या में पक्ष्माभ होते है । इनमें गुहा (ग्रसिका) होती है जो कोशिका सतह के बाहर की तरफ खुलती है । पक्ष्माभों की लयबद्ध गति के कारण जल से पूरित भोजन गलेट की तरफ भेज दिया जाता है । इनमें सिलिका के कवच का अभाव होता है । उदाहरण – पैरामिशियम , वर्टिसेला ।
पैरामिशियम में जनन की प्रक्रिया द्विखण्डन एवं संयुग्मन द्वारा होती है ।

पैरामिशियम में डाइमोरफिक केन्द्र(द्विआकारिकी केन्द्र – लघुकेन्द्रक तथा कायिक केन्द्रक) पाए जाते है ।
iv) स्पोरोजोआ – इस समूह में विविध जीवधारी आते है । जिनके जीवन चक्र में संक्रमण करने योग्य बीजाणु जैसी अवस्था पाई जाती है । इनमें गमनांग का अभाव होता है । इनमें सिलिका कवच का अभाव होता है ।
उदाहरण – प्लाज्मोडियम (मलेरिया परजीवी )

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