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10th class NCERT/CBSE Science chapter-6-पाठगत प्रश्नों के हल || Life Processe

अध्याय-6 – जैव प्रक्रम 

प्रश्न-1. हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण क्यों अपर्याप्त है ।
उत्तर- हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण अपर्याप्त है क्योंकि विसरण द्वारा ऑक्सीजन उन्हीं कोशिकाओं में पहुँच सकती है जो सीधे वायु के संपर्क में होती है । चूँकि हमारे आंतरिक अंगों की कोशिकाएँ एवं उत्तक वायु से दूर गहराई में स्थित होते है , जिस कारण इन्हें विसरण द्वारा द्वारा ऑक्सीजन नहीं मिल सकती है । इसी कारण हमारे जैस बहुकोशिकीय जीवों में विसरण द्वारा ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो सकती है ।

प्रश्न-2. कोई वस्तु सजीव है ,इसका निर्धारण करने के लिए हम किस मापदण्ड का उपयोग करेंगे ।
उत्तर- कोई वस्तु सजीव है, इसके लिए उसमें निम्नलिखित लक्षण होने चाहिए –
1. सजीवों का शरीर कोशिका /कोशिकाओं /उत्तकों का बना होता है ।
2. सजीवों में विभिन्न उपापचयी क्रियाएँ – जैसे पाचन, श्वसन तथा उर्त्सजन आदि पाई जाती है ।
3. सजीवों में वृद्धि होती है तथा गति करते है ।
4. सजीवों की मृत्यू होती है तथा जनन द्वारा अपनी संतति को बढ़ाते है ।
5. सजीवों का एक निश्चित आकार एवं आकृति होती है ।

प्रश्न-3. किसी जीव द्वारा किन कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया जाता है ।
उत्तर- किसी जीव द्वारा कच्ची सामग्रियों का उपयोग कार्बन आधारित अणुओं के रूप में किया जाता है क्योंकि पृथ्वी पर जीवन कार्बन आधारित अणुओं पर निर्भर है अतः अधिकांश खाद्य पदार्थ भी कार्बन पर आधारित होते है ।

प्रश्न-4. जीवन के अनुरक्षण के लिए आप किन प्रक्रमों को आवश्यक मानेंगे ।
उत्तर- जीवन के अनुरक्षण के लिए निम्न प्रक्रमों को आवश्यक मानते है –
1. पोषण 2. उपापचय 3. श्वसन 4. उर्त्सजन 5. परिवहन 6. पदार्थों का आदान-प्रदान

प्रश्न-5. स्वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में क्या अन्तर है ।
उत्तर- स्वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में अन्तर –

क्रंसं. स्वयंपोषी पोषण(autotrophic nutrition) विषमपोषी पोषण (Heterotrophic nutrition)
1. पोषण की वह विधि जिसमें जीवधारी सरल अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक भोज्य पदार्थों का निर्माण स्वयं कर लेते हैं, स्वयंपोषी पोषण कहलाती है तथा ऐसे जीवधारी स्वयंपोषी कहलाते है । पोषण की वह विधि जिसमें जीवधारी सरल अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक भोज्य का निर्माण नहीं कर पाते है ,तथा इसे दूसरे जीवों से प्राप्त करते है ,विषमपोषी पोषण कहलाती है तथा ऐसे जीवधारी विषमपोषी कहलाते है ।
2. सभी हरे पौधे स्वयंपोषी पोषण विधि अपनाते है और सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में पर्णहरित (क्लोरोफिल) द्वारा जल एवं CO2 से ग्लूकोज का निर्माण करते है । सभी जंतु विषमपोषी पोषण विधि अपनाते है और ये शाकाहारी ,मांसाहारी, परजीवी या मृतोपजीवी हो सकते है ।
3. इस विधि में जीवों में संचित भोजन (कार्बोहाइड्रेट्स), स्टार्च के रूप में होता है । इस विधि में जीवों में संचित भोजन (कार्बोहाइड्रेट्स), ग्लाइकोजन के रूप में होता है ।
4. उदाहरण- सभी हरे पौधे , नील हरित शैवाल एवं प्रकाश-संश्लेषी जीवाणु सभी जन्तु , कवक , मनुष्य, परजीवी पादप(अमरबेल) , अधिकांश जीवाणु

 

प्रश्न-6. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री पौधा कहाँ से प्राप्त करता है । 

उत्तर – प्रकाशसंश्लेषण की प्रक्रिया पौधे की पत्तियों में होती है । प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री प्रकाश , जल तथा CO2 है । पौधे प्रकाश , सूर्य से प्राप्त करते है एवं पौधे की जड़ों द्वारा भूमिगत जल, जाइलम द्वारा क्रियास्थल तक पहुँचा दिया जाता है और वायुमण्डल से CO2 , पौधे की पत्तियों में उपस्थित रंध्रों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है ।

प्रश्न-7. हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है ।
            अथवा
आमाशय में अम्ल का क्या कार्य है ।
उत्तर- आमाशय की भित्ति में उपस्थित जठर ग्रंथियों द्वारा जठर रस का स्त्रवण होता है । यह अम्लीय होता है , क्योंकि इसमें हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) होता है । इस अम्ल की निम्नलिखित भूमिका है –
i. यह भोजन को सड़ने से बचाता है ।
ii. यह अम्लीय माध्यम प्रदान करता है , जो पेप्सिन एंजाइम की क्रिया में सहायक होता है ।
iii. HCl कठोर उत्तकों को घोलने में सहायता करता है ।
iv. यह भोजन को रोगाणुरहित (sterilize) करता है ।
v. निष्क्रीय पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में बदलता है ।
vi. जठर निर्गमी रोधनी (pyloric sphincter) नियंत्रित करता है ।
vii. कैल्सियम एवं लोह के अवशोषण में सहायता करता है ।
viii. यह लार एमाइलेज की क्रिया को समाप्त करता है ।

प्रश्न-8. पाचक एंजाइमों का क्या कार्य है ।
उत्तर- एंजाइम कार्बनिक जैव-उत्प्रेरक होते है ,जो विभिन्न जैव-रासायनिक क्रियाओं की दर को बढ़ाते हैं । पाचक एंजाइमों का मुख्य कार्य भोजन का पाचन करना है अर्थात् जटिल एवं अघुलनशील भोजन को सरल एवं घुलनशील भोजन में बदलना है । अतः पाचक एंजाइम पाचन की क्रिया में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा के पाचन को सुगम बनाते है ।

प्रश्न-9. पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुद्रांत्र को कैसे अभिकल्पित किया गया है ।
उत्तर- क्षुद्रांत्र (small intestine) कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन के पूर्ण पाचन का स्थल है । इस कार्य के लिए यह यकृत एवं अग्नाशय से स्त्रावण प्राप्त करती है । क्षुद्रांत्र की भित्ति में ग्रंथि होती है ,जो आंत्र रस स्त्रावित करती है । इसमें उपस्थित एंजाइम अंत में प्रोटीन को ऐमीनो अम्ल, जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में तथा वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देते है ।
इस पाचित भोजन को आंत्र की भित्ति अवशोषित कर लेती है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक स्तर पर अनेक अंगुली जैसे प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ा देते है । दीर्घरोम में रूधिर वाहिकाओं की बहुतायत होती है , जो भोजन को अवशोषित करके शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाते है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने ,नए उत्तकों के निर्माण और पुराने उत्तकों की मरम्मत में होता है ।

प्रश्न-10. श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्त करने की दिशा में एक जलीय जीव की अपेक्षा स्थलीय जीव किस प्रकार लाभप्रद होते है ।
उत्तर- जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 1 % होती है जबकि स्थल पर वायुमण्डल में यह 20 % होती है । अतः जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम होने के कारण जलीय जीवों की श्वसन दर तेज होती है और वे इसे बलपूर्वक ग्रहण करते है ।
जबकि स्थलीय जीव आसनी से ऑक्सीजन ग्रहण कर लेते है । इनमें ऑक्सीजन को वायुमण्ल से ग्रहण करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अंग पाए जाते है । जिनकी सहायता से वे अधिक ऑक्सीजन ग्रहण कर सकते है ।
अतः स्थलीय जीव जलीय जीवों की अपेक्षा अधिक ऑक्सीजन ग्रहण करता है ।

प्रश्न-11. ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से भिन्न जीवों में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए विभिन्न पथ क्या है ।
                         अथवा
वायवीय तथा अवायवीय श्वसन किसे कहते है । विभिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज के विखंडन को समझाइए ।
उत्तर- विभिन्न जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक ऊर्जा ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से प्राप्त होती है ,जो कि ATP (एडिनोसिन ट्राई फॉस्फेट) के रूप में संचित रहती है । विभिन्न जीवधारियों में ग्लूकोज का ऑक्सीकरण निम्न प्रकार से हो सकता है –
1. वायवीय श्वसन – जब ग्लूकोज का ऑक्सीकरण कोशिकाद्रव्य में ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है , तब उसे वायवीय श्वसन कहते है । अधिकांश जीवों में इसी प्रकार से ऊर्जा उत्पादन होता है ।
2. अवायवीय श्वसन – यदि ग्लूकोज का ऑक्सीकरण ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, तो उसे अवायवीय श्वसन कहते है ।
i) ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अवायवीय श्वसन – यह प्रक्रम किण्वन के समय यीस्ट में होता है । यहाँ पायरूवेट अणु इथेनॉल तथा CO2 में परिवर्तित
हो जाता है ।
ii) ऑक्सीजन के अभाव में अवायवीय श्वसन- कभी-कभी जब हमारी पेशी कोशिकाओं में ऑक्सीजन का अभाव हो जाता है तब पायरूवेट एक अन्य तीन कार्बन वाले अणु लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित हो जाता है ।

प्रश्न-12. मनुष्यों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड का परिवहन कैसे होता है ।
उत्तर- जब हम श्वास अन्दर लेते है, तब हमारी पसलियाँ ऊपर उठती हैं और हमारा डायफ्राम चपटा हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप वक्षगुहिका बड़ी हो जाती है । इस कारण वायु फुफ्फुस के अन्दर चूस ली जाती है । और यह कूपिकाओं तक पहुँचती है । कूपिकाओं की भित्ति में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । मानव श्वसन वर्णक वस्तुतः हीमोग्लोबिन होता है ,जो ऑक्सीजन के लिए उच्च बंधुता रखता है । यह वर्णक लाल रूधिर कणिकाओं में उपस्थित होता है । अतः वायु कूपिकाओं से विसरित होती है और ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन के अणुओं से बंध जाती है । रूधिर इस ऑक्सीजन को कमी वाले उत्तकों में पहुँचा देता है ।
कार्बन डाइऑक्साइड जल में अधिक विलेय है , इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय अवस्था में होता है । रूधिर में विलेय होकर CO2 फेफड़ों तक लाई जाती है । वायु कूपिकाओं में CO2 की सांद्रता कम होने के कारण रूधिर से यह विसरित होकर फेफड़ों में आ जाती है । यह CO2 वायु निःश्वसन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दी जाती है ।

प्रश्न-13. गैसों के विनिमय के लिए मानव फुफ्फुस में अधिकतम क्षेत्रफल को कैसे अभिकल्पित किया है ।
उत्तर- मनुष्य में दो फेफड़े होते है जिन्हें क्रमशः दायां व बायां फेफड़ा कहते है । फेफड़ों में प्रवेश करके प्रत्येक श्वसनी (Bronchus) पतली-पतली शाखाओं में बँट जाती है । इन शाखाओं के श्वसनिकाएँ (Bronchioles) कहते है । प्रत्येक श्वसनिका से श्वसन श्वसनिकाएँ (Respiratory Bronchioles) नामक पतली शाखाएँ उत्पन्न होती है । श्वसन श्वसनिकाएँ और भी पतली शाखाओं में विभक्त हो जाती है जिन्हें कूपिका वाहिनी (Alveolar duct) कहते है ।
अन्त में प्रत्येक कूपिका वाहिनी एक थैलीनुमा रचना में खुलती है जिसे वायु कोष (Air-sac) कहते है । वायुकोष अथवा कूपिकाएँ (Alveoli) ही वे स्थान हैं जहाँ गैसों का आदान-प्रदान होता है । कूपिकाओं के चारों ओर रूधिर कोशिकाओं का घना जाल होता है । ये श्वसनीय सतह का कार्य करती है । यदि मनुष्यों के दोनों फेफड़ों कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह लगभग 80 वर्गमीटर क्षेत्र ढ़क लेती है । अतः फेफड़ों में स्थित कूपिकाएँ गैसों के विनिमय के लिए विस्तृत स्थान उपलब्ध कराती है ।

प्रश्न-14. मानव में वहन तंत्र के घटक कौनसे है । तथा इन घटकों के क्या कार्य है ।
उत्तर- मानव में वहन तंत्र के दो मुख्य घटक है जिन्हें क्रमशः परिसंचरण तंत्र (Circulatory system) तथा लसीका तंत्र (Lymphatic system) कहते है ।
अ) परिसंचरण तंत्र (Circulatory system) – परिसंचरण तंत्र के निम्न तीन भाग होते है –
1) ह्रदय (Heart) – यह एक पेशीय अंग है जो पूरे शरीर में रूधिर को पम्प करने के लिए संकुचन करता है ।
2. रूधिर (Blood) – यह एक तरल संयोजी उत्तक है ,जिसमें तरल प्लाज्मा एवं रूधिर कोशिकाओं के रूप में स्वतंत्र कोशिकाएँ होती है । ये रूधिर कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती है ।
i. लाल रूधिर कोशिकाएँ (Red Blood Corpuscles) के कार्य – ये ऑक्सीजन को फेफड़ों से उत्तक तक पहुँचाती है । एवं कार्बन डाईऑक्साइड का कोशिकाओं से फेफड़ों तक संवहन करती है ।
ii. श्वेत रूधिर कोशिकाएँ (White Blood Corpuscles) के कार्य – ये भक्षकाणु (Phagocytosis) का कार्य करती है और ये एण्टीटॉक्सिन एवं एण्टीबॉडीज का निर्माण करती है ।
iii. प्लेटलेट्स (Platelets) के कार्य – ये रक्त स्कंदन में सहायता करती है ,जिससे रक्त वाहिनी के कटे भाग से रक्तस्त्राव बंद हो जाता है ।
प्लाज्मा (Plasma) के कार्य –
i. यह भोजन , कार्बन डाईऑक्साइड तथा नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ का विलीन रूप में वहन करता है ।
ii. प्लाज्मा में उपस्थित फाइब्रोनोजन तथा प्रोथ्रोम्बिन रूधिर स्कंदन में सहायता करते है ।
iii. इसमें उपस्थित अकार्बनिक पदार्थ PH का नियमन करते है ।
3) रूधिर वाहिकाएँ (Blood vessels) – ये तीन प्रकार की होती है –
i. धमनियाँ (Arteries) – ये मोटी भित्ति वाली रूधिर वाहिकाएँ है ,जो रूधिर को ह्रदय से विभिन्न अंगों में ले जाने का कार्य करती है ।
ii. शिराएँ (veins) – ये पतली भित्ति वाली वाहिकाएँ होती है ,जो रूधिर को विभिन्न अंगों से ह्रदय की ओर लाने का कार्य करती है ।
iii. केशिकाएँ (Capillaries) – ये अत्यधिक पतली एवं संकीर्ण वाहिकाएँ हैं , जो धमनियों को शिराओं से जोड़ती है ।
ब) लसिका तंत्र (Lymphatic system) – यह एक अन्य प्रकार का द्रव है जो लसीका या उत्तक तरल कहलाता है । यह भी वहन में सहायता करता है । केशिकाएँ की भित्ति में उपस्थित छद्रों द्वारा कुछ प्लाज्मा ,प्रोटीन तथा रूधिर कोशिकाएँ बाहर निकलकर उत्तक के अंतर्कोशिकीय अवकाश में आ जाते है तथा उत्तक तरल या लसीका का निर्माण करते है । यह रूधिर के प्लाज्मा की तरह ही है ,लेकिन यह रंगहीन तथा इसमें अल्प मात्रा में प्रोटीन होते है ।
लसीका अंतर्कोशिकीय अवकाश से लसीका केशिकाओं में चला जाता है ,जो आपस में मिलकर बड़ी लसीका वहिका बनाती है और अंत में बड़ी शिरा में खुलती है । पचा हुआ तथा क्षुद्रांत्र द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसीका द्वारा होता है ।

प्रश्न-15. स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रूधिर को अलग करना क्यों आवश्यक है ।
उत्तर- स्तनधारी तथा पक्षियों में दोहरा रूधिर परिसंचरण पाया जाता है अर्थात् इनमें रूधिर अपने एक चक्र में दो बार ह्रदय से होकर गुजरता है । इनमें ह्रदय चार खंडों में बंटा होता है – दो आलिन्द तथा दो निलय । बाएँ भाग में शुद्ध व दाएँ भाग में अशुद्ध रूधिर होता है । ह्रदय का दायां व बायां भाग ऑक्सीजनित व विऑक्सीजनित रूधिर को मिलने से रोकने में सहायक होता है । इस तरह का विभाजन शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति करता है । जिससे स्तनधारी तथा पक्षियों को अपने शरीर का आवश्यक तापक्रम बनाये रखने में सहायता मिलती है । इसलिए स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रूधिर को अलग करना आवश्यक है ।

प्रश्न-16. उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक क्या है ।
उत्तर- उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के निम्न दो घटक है –
1. जायलम (Xylem)
2. फ्लोएम (Phloem)
1. जायलम (Xylem) – इसे जल संवहन उत्तक (water conducting tissue) भी कहते है । इसका प्रमुख कार्य जड़ों द्वारा अवशोषित जल व खनिज लवणों को पौधे के विभिन्न भागों तक पहुँचाना है । यह चार घटकों से मिलकर बनता है –
i. वाहिनिकाएँ (Tracheids)
ii. वाहिकाएँ (Vessels)
iii. जाइलम पैरेंकाइमा (Xylem parenchyma)
iv. जाइलम तंतु (Xylem fibres)
2. फ्लोएम (Phloem) – फ्लोएम का प्रमुख कार्य पर्ण में प्रकाश-संश्लेषण के फलस्वरूप बने कार्बनिक भोज्य पदार्थों तथा हार्मोन्स को पौधे के प्रत्येक भाग तक पहुँचाना होता है । फ्लोएम भी चार घटकों से मिलकर बना होता है –
i. चालनी-नलिका (Sieve tubes)
ii. सहकोशिका (Companion cells)
iii. फ्लोएम तंतु (Phloem fibres)
iv. फ्लोएम पैरेंकाइमा (Phloem parenchyma)

प्रश्न-17. पादप में जल व खनिज लवण का वहन कैसे होता है ।
उत्तर- पादप में जल व खनिज लवणों का वहन जाइलम उत्तक के माध्यम से होता है । सांद्रण प्रवणता के आधार पर जल व खनिज लवण जड़ों के माध्यम पादप में प्रवेश करते है और यहाँ से इन्हें पौधे के विभिन्न भागों तक जाइलम उत्तक के द्वारा ले जाया जाता है । सांदण प्रवणता के कारण जल अनवरत गति से जड़ के जाइलम में जाता है और जल के स्तम्भ का निर्माण करता है जो लगातार उपर की धकेला जाता है ।
वास्तव में पौधे में जल का परिवहन अधिक उँचाई तक वाष्पोर्त्सजन कर्षण बल के कारण होता है । पत्तियों मे रंध्रों के माध्यम से वाष्पोर्त्सजन के द्वारा जल की हानि होती है जिसके कारण एक चूषण दाब उत्पन्न होता है जिससे ऊपर की ओर जड़ों से पत्तियों तक जल का एक सतत् प्रवाह बन जाता है ।

प्रश्न-18. पादप में भोजन का स्थानांतरण कैसे होता है ।
उत्तर- प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा पत्तियों में निर्मित भोजन का स्थानांतरण पौधे के विभिन्न भागों तक फ्लोएम उत्तक के माध्यम से होता है । निर्मित भोजन को जड़ के भण्डारण अंगों, फलों,बीजों तथा वृद्धि वाले अंगों में ले जाया जाता है । भोजन तथा अन्य पदार्थों का स्थानांतरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चालनी नलिका में उपरिमुखी तथा अधोमुखी दोनों दिशाओं में होता है ।
फ्लोएम द्वारा भोजन का स्थानांतरण ऊर्जा के उपयोग से पूरा होता है । सुक्रोज सरीखे पदार्थ फ्लोएम उत्तक में ए.टी.पी से प्राप्त ऊर्जा से ही स्थानांतरित होते है । परासरण दाब भी भोज्य पदार्थों के परिवहन में सहायक होता है ।

प्रश्न-19. वृक्काणु (नेफ्रोन) की रचना तथा क्रियाविधि का वर्णन कीजिए ष
                    अथवा
वृक्काणु का नामांकित चित्र बनाइए । मूत्र निर्माण की प्रक्रिया समझाइए ।
उत्तर- नेफ्रोन की रचना (structure of Nephron) – प्रत्येक वृक्क में लगभग दस लाख अतिसूक्ष्म नलिकाएँ होती है ,जिन्हें वृक्क नलिकाएँ अथवा नेफ्रोन कहते है । नेफ्रोन को वृक्क की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई कहते है । नेफ्रोन का प्रारंभिक भाग एक प्याले के समान होता है जिसे बोमेन सम्पुट (Bowman Capsule) कहते है । बोमेन सम्पुट के प्यालेनुमा खाँचे में रक्त की नलियों का गुच्छा होता है जिसे ग्लोमेरूलस (Glomerulus) कहते है । ग्लोमरूलस व बोमेन सम्पुट को मिलाकर मैलपीगी कोश (Malpighian Capsule) कहते है ।

नेफ्रोन का शेष भाग नलिका के रूप में होता है । यह नलिका तीन भागों में विभेदित होती है ,जिन्हें क्रमशः समीपस्थ कुण्डलित नलिका (Proximal convoluted duct), हेनले का लूप (Henley’s loop) एवं दूरस्थ कुण्डलित नलिका (Distal convoluted duct) कहते है । दूरस्थ कुण्डलित नलिका अन्त में संग्रह नलिका या वाहिनी में खुलती है । एक ओर की संग्राहक या संग्रह वाहिनियाँ मूत्र वाहिनी (Ureter) में खुलती है । वस्तुतः संग्रह वाहिनियाँ नेफ्रोन का भाग नहीं होती है ।
नेफ्रोन की क्रियाविधि (कार्य) – नेफ्रोन का मुख्य कार्य मूत्र निर्माण करना है । मूत्र निर्माण की क्रिया को तीन पदों में बांटा जा सकता है –
i. छानना या परानिस्यंदन (Ultrafiltration)
ii. चयनात्मक पुनः अवशोषण (Selective reabsorption)
iii. स्त्रवण (Secretion)
i. छानना या परानिस्यंदन (Ultrafiltration) – ग्लोमेरूलस में प्रवेश करने वाली अभिवाही धमनिका , उससे बाहर निकलने वाली अपवाही धमनिका से अधिक चौड़ी होती है । इसलिए जितना रूधिर ग्लोमेरूलस में प्रवेश करता है उतना रूधिर बाहर नहीं निकल पाता है । इसलिए कोशिका गुच्छ में रूधिर का दबाव बढ़ जाता है । इस दाब के कारण प्रोटीन के अलावा रूधिर प्लाज्मा में घुले सभी पदार्थ छनकर बोमेन संपुट में पहुँच जाते है । संपुट में पहुँचने वाला यह द्रव नेफ्रिक फिल्ट्रेट या वृक्क निस्यंद कहलाता है । रूधिर में घुले सभी लाभदायक एवं हानिकारक पदार्थ इस द्रव में होते है ,इसलिए इसे प्रोटीन रहित छना हुआ प्लाज्मा भी कहते है ।
ii. चयनात्मक पुनः अवशोषण – नेफ्रिक फिल्ट्रेट द्रव बोमेन संपुट में से होकर वृक्क नलिका के अग्र भाग में पहुँचता है । इस भाग में ग्लूकोज, विटामिन ,हार्मोन तथा अमोनिया आदि को रूधिर में पुनः अवशोषित कर लिया जाता है । ये अवशोषित पदार्थ नलिका के चारों ओर फैली कोशिकाओं के रूधिर में पहुँचते है । इनके अवशोषण से नेफ्रिक फिल्ट्रेट में पानी की सांद्रता अधिक हो जाती है । अब जल भी परासरण विधि द्वारा रूधिर में पहुँच जाता है ।
iii. स्त्रवण – जब रूधिर वृक्क नलिका पर फैले कोशिका जाल से गुजरता है ,तब उसके प्लाज्मा में बचे हुए उत्सर्जी पदार्थ पुनः नेफ्रिक फिल्ट्रेट में डाल दिए जाते है । इस अवशेष द्रव में केवल अपशिष्ट पदार्थ बचते है ,जो मूत्र कहलाता है । यह मूत्र ,मूत्राशय में संग्रहित होता है । और आवश्यकता पड़ने पर मूत्राशय की पेशियों के संकुचन से मूत्र मार्ग द्वारा शरीर से बाहर निकल जाता है ।

प्रश्न-20. उत्सर्जी पदार्थों से छुटकारा पाने के लिए पादप किन विधियों का उपयोग करते है ।
उत्तर- उत्सर्जी पदार्थों से छुटकारा पाने के लिए पादप निम्न विधियों का उपयोग करते है ।
i. पादपों में श्वसन क्रिया के दौरान बनी CO2 मुख्य उत्सर्जी पदार्थ है । अतः श्वसन क्रिया में उत्पन्न CO2 एवं जलवाष्प का निष्कासन सामान्य विसरण द्वारा रंध्रों एवं वातरंध्रों के द्वारा किया जाता है ।
ii. पौधे के उत्सर्जी वर्ज्य पदार्थों को पत्तियों ,छाल एवं फलों में पहुँचा दिया जाता है । इनके पौधों से पृथक होने पर पौधों को इनसे छुटकारा मिल जाता है ।
iii. अनेक उत्सर्जी पदार्थ कोशिकाओं की रिक्तिकाओं में संचित कर दिए जाते है ।
iv. गोंद,टेनिन ,रेजिन आदि पदार्थ मृत काष्ठ में पहुँचा दिए जाते है ।
v. अनावश्यक जल वाष्पोत्सर्जन द्वारा वायुमण्डल में मुक्त कर दिया जाता है ।
vi. कुछ अपशिष्ट पदार्थों को पौधों की जड़ों द्वारा मृदा में स्त्रावित कर दिया जाता है ।

प्रश्न-21. मूत्र बनाने की मात्रा का नियमन किस प्रकार होता है ।
उत्तर- एन्टी डाइयूरेटिक हार्मोन (ADH) या वेसोप्रेसिन नामक हार्मोन मूत्र बनने की मात्रा का नियमन करते है । यह हार्मोन मूत्र में पानी की मात्रा का नियमन करता है । यह नेफ्रोन की दूरस्थ कुण्डलित नलिका एवं संग्रह नलिका की जल पारगम्यता को बढ़ाता है । इसके कारण जल का अवशोषण बढ़ता है ।
इस हार्मोन की कमी से जल का अवशोषण कम हो जाता है व मूत्र में पानी की मात्रा बढ़ जाती है । इसे डाइयूरेसिस (Diuresis) कहते है ।
इस प्रकार मूत्र बनने की मात्रा का नियमन होता है ।

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