Hindi science

Wart disease of Potato in Hindi || Wart disease of Potato is a Fungal Disease

आलू का मस्सा रोग

I. आलू का मस्सा रोग (Wart disease of Potato) – यह आलू का अत्यंत विनाशकारी रोग है । इसकी खोज हंगरी (Hungary) में 1895 में हुई थी और अब यह अधिकांश देशों , उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, दक्षिण अफ्रिका आदि अनेक देशों में पाया जाता है । भारतवर्ष में यह रोग दार्जिलिंग में डेनमार्क से आयात आलू की ‘फ्यूरोर’ किस्म पर 1945 में देखा गया ।
1. रोग लक्षण (disease symptoms) –


i. जड़ तथा स्तंभ के आधारीय भाग क छोड़कर इस रोग के लक्षण पौधे के सभी भूमिगत (underground) भागों में पाए जाते है ।
ii. संक्रमित कंदों पर यह रोग गहरे-भूरे अथवा कत्थई रंग की अतिवृद्धि (hypertrophy) अथवा मस्सों (warts) के रूप में प्रकट होता है ।
iii. मस्से सरल अथवा अत्यंत शाखित होते है । कभी-कभी मस्सों का आमाप कंद के आमाप से अधिक होता है ।
2. रोगकारक जीव (Causal organism) – यह रोग सिनकाइट्रियम एण्डोबायोटिक्म (Synchytrium endobioticum) नामक कवक से होता है । यह एक अविकल्पी परजीवी (obligate parasite) है । इसमें कवकजाल का अभाव होता है ।
3. रोग-चक्र (disease cycle) –


i. आलू में इसका संक्रमण एक कशाभिक चलबीजाणुओं (uniflagellate zoospores) द्वारा बसन्त ऋतु में होता है । चल बीजाणु मिट्टी में उपस्थित जल की पतली परत पर स्वतंत्र रूप से गति करते हुए जब किसी परपोषी कोशिका के संपर्क में आते है तो इनकी कशाभिका लुप्त हो जाती है तथा नग्न एककेन्द्रकी जीवद्रव्यक आलू के कंद (tuber) की बाह्यत्वचीय कोशिका में एक छिद्र बनाकर अमीबीय विधि से प्रवेश करता है । यहाँ अमीबीय बीजाणु के आमाप में वृद्धि होती है और इसी के साथ संक्रमित कोशिका के आमाप में असामान्य वृद्धि होती है ।
ii. अब अमीबीय बीजाणु (अमीबीय आकृति का बीजाणु) अपने चारों ओर एक दोहरी भित्ति का आवरण बना लेता है । आवरण की बाह्यभित्ति मोटी व गहरे-सुनहरे रंग की एवं अंतः भित्ति पतली तथा पारदर्शी होती है । परजीवी की इस अवस्था को निश्चेष्ट बीजाणु अथवा ग्रीष्मी बीजाणु (summer spore) कहते है । यह परपोषी कोशिका के नीचले अर्ध भाग में स्थित होता है । इस समय परपोषी की बाह्यत्वचीय व कॉर्टेक्स कोशिकाएँ उद्दीपित होकर विभाजन आरंभ कर देती है । इसके फलस्वरूप परपोषी की सतह पर एक मस्सा (wart) अथवा अर्बुद (tumour) सदृश्य संरचना बन जाती है ।
iii. ग्रीष्मी बीजाणु का अंकुरण परपोषी कोशिका के भीतर ही होता है । परिपक्व बीजाणु की बाह्य कठोर भित्ति एक नलिका के रूप में निकलकर परपोषी के ऊपरी भाग में एक आशय (vesicle) बनती है ।
iv. ग्रीष्म बीजाणु का जीवद्रव्यक इस आशय में स्थानान्तरित हो जाता है । अब इसके केन्द्रक में अनेक समसूत्री विभाजन होते है जिससे 32 केन्द्रक बन जाते है । यह बहुकेन्द्रकी जीवद्रव्यक प्राक्बीजाणुधानीय पुंज अथवा प्रोसोरस (prosorus) कहलाता है । प्रोसोरस का जीवद्रव्यक 5 से 9 खंडों में विभक्त हो जाता है । प्रत्येक खंड एक पतली जीवद्रव्य कला (protoplasmic membrane) से घिरा होता है तथा इसे चलबीजाणुधानी (zoosporangium) अथवा ग्रीष्म बीजाणुधानी (summer sporangium) कहते है ।
v. प्रत्येक बीजाणुधानी के केन्द्रकों में पुनः समसूत्री विभाजन होते है । जिससे लगभग 300 केन्द्रक बन जाते है । अब इसका जीवद्रव्यक अनेक (केन्द्रकों की संख्या के बराबर) एककेन्द्रकी खण्डों (uninucleate segments) में विभक्त हो जाता है । प्रत्येक एक केन्द्रकी खण्ड चलबीजाणु (zoospore) में रूपांतरित हो जाता है ।
vi. परिपक्व बीजाणुधानी जल के अवशोषण से फट जाती है और चल बीजाणु मुक्त हो जाते है । प्रत्येक चलबीजाणु अण्डाकार ,एककेन्द्रकी ,एक कशाभिक तथा नग्न जीवद्रव्य युक्त होता है ।
vii. प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रोसोरस का प्रत्येक खंड चलबीजाणुधानी में रूपांतरित न होकर युग्मकधानी (gametangium) बनाता है । इनमें चलयुग्मकों का निर्माण होता है जो आमाप में चलबीजाणुओं से छोटे होते है । युग्मकधानी से मुक्त होने के पश्चात् चलयुग्मक जल की सतह पर स्वतंत्रतापूर्वक तैरते है तथा दो विभिन्न युग्मकधानियों उत्पन्न युग्मकों का युग्मों (pairs) में संयोजन होता है । युग्मकों के संलयन एक द्विगणित द्विकशाभिक युग्मनज (zygote) का निर्माण होता है ।
viii. युग्मनज ,चलबीजाणुओं की भाँति परपोषी कोशिका को संक्रमित करते है । संक्रमित करने के पश्चात् इनकी कशाभिकाएँ लुप्त हो जाती है । और परपोषी कोशिका से भोजन अवशोषित करके युग्मनज आमाप में वृद्धि कर लेते है । तथा अपने चारों एक 2-3 स्तरीय भित्ति स्त्रावित करते है । इसे सुप्त बीजाणुधानी (resting sporangium) कहते है । चूँकि यह बीजाणुधानी संपूर्ण शीतकाल में निश्चेष्ट रहती है । अतः इसे शिशिर बीजाणुधानी (winter sporangium) भी कहते है । ये बीजाणुधानियाँ आगामी बसन्त ऋतु में पुनः सक्रिय हो जाती है तथा इसके केन्द्रक में पुनरावृत विभाजन होते है । इसका प्रथम विभाजन अर्द्धसूत्री तथा शेष विभाजन समसूत्री होते है । जिससे बीजाणुधानी में अनेक अगुणित केन्द्रक बनते है । अब इसका बहुकेन्द्रकी जीवद्रव्य ,एककेन्द्रकी खंडों में विभक्त हो जाता है । प्रत्येक एककेन्द्रकी खंड एक कशाभिक चलबीजाणु बनाता है जो आमाप में युग्मक से बड़े होते है । बीजाणुधानी द्वारा जल अवशोषण करने से बीजाणुधानी फट जाती है और चल बीजाणु मुक्त हो जाते है । अब ये नई पोषक कोशिका को संक्रमित करते है ।
4. रोग नियंत्रण (disease control) – इस रोग का नियंत्रण निम्न विधियों से किया जा सकता है –
i. आलू की प्रतिरोधी किस्मों (resistant varieties) के उपयोग से ।
ii. आलू का आयात करते समय संगरोधक अथवा क्वारन्टाइन (quarantine) नियमों का पालन करके ।
iii. यह रोग उत्तरी-पूर्वी हिमालय क्षेत्र में व्यापक रूप से होता है । अतः इस क्षेत्र के आलू को बीज के रूप में प्रयोग न करके रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है ।
iv. इस रोग के निश्चेष्ट बीजाणु (resting spore) मिट्टी में 10 वर्ष तक अंकुरक्षम रहते है । अतः जिस भूमि में फसल एक बार संक्रमित हो जाये ,वहाँ यदि संभव हो तो यह फसल न उगाई जाये ।
v. सल्फर युक्त कीटनाशक के प्रयोग से रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है ।
vi. आलू बोने से पूर्व भूमि में चूना (lime) व फफूँदनाशक रसायनों (fungicides) के छिड़काव से रोगणुओं की संक्रमण क्षमता क्षीण हो जाती है ।

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