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जैव विकास (Organic Evolution) and जैव-विकास के सिद्धांत (Theory of Organic Evolution )//Biology g.k.

जैव विकास (Organic Evolution)

⦁ जैव विकास (Organic Evolution) – प्रारंभिक, निम्न कोटी के जीवों से क्रमिक परिवर्तनों द्वारा अधिकाधिक जीवों की उत्पत्ति को जैव विकास कहा जाता है ।
जीव-जन्तुओं की रचना कार्यिकी एवं रासायनिक, भ्रूणीय विकास, वितरण आदि में विशेष क्रम व आपासी संबंध के आधार पर सिद्ध किया गया है कि जैव विकास हुआ है । लैमार्क, डार्विन, वैलेस, डी.व्रीज आदि ने जैव विकास के संबंध में अपनी-अपनी परिकल्पनाओं को सिद्ध करने के लिए इन्हीं संबंधों को दर्शाने वाले निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं –
1. वर्गीकरण से प्रमाण
2. तुलनात्मक शरीर रचना से प्रमाण
3. अवशेषी अंगों से प्रमाण
4. संयोजकता जंतुओं से प्रमाण
5. पूर्वजता से प्रमाण
6. तुलनात्मक भ्रौणिकी से प्रमाण
7. भौगोलिक वितरण से प्रमाण
8. तुलनात्मक कार्यिकी एवं जीव रासायनिकी से प्रमाण
9. आनुवांशिकी से प्रमाण
10. पशुपालन से प्रमाण
11. रक्षात्मक समरूपता से प्रमाण
12. जीवाश्म विज्ञान एवं जीवाश्मकों से प्रमाण

समजात अंग (Homologous Organs) – वे अंग जिनकी मूलभूत संरचना एवं उत्पत्ति समान हो लेकिन कार्य भिन्न हो, समाजत अंग कहलाते है ।
उदाहरण- व्हेल, पक्षी, चमगादड़, घोड़े तथा मनुष्य के अग्रपाद समजात अंग है । ये उत्पत्ति एवं संरचना में समान होते हैं लेकिन कार्य में भिन्न-भिन्न होते हैं जैसे व्हेल के अग्रपाद तैरने में सहायक होते है , पक्षी तथा चमगादड़ के अग्रपाद उड़ने में सहायक होते हैं, घोड़े के अग्रपाद दौड़ने में सहायक होते हैं तथा मनुष्य के अग्रपाद वस्तुओं आदि को पकड़ने में सहायक होते है ।

समरूप या समवृति अंग (Analogous Organs) – वे अंग जिनके कार्य समान हों किन्तु उनकी मूलभूत संरचना एवं उत्पत्ति में अन्तर हो, समरूप अंग कहलाते हैं ।
उदाहरण- कीट तथा पक्षी के पंख समवृति अंग हैं । इनके पंख उड़ने का कार्य करते हैं अर्थात् कार्य समान हैं । किन्तु इनके पंखों की संरचना तथा उत्पत्ति में अन्तर होता है ।

अवशेषी अंग (Vestigial organ) – ऐसे अंग जो जीवों के पूर्वजों में पूर्ण विकसित होते हैं ,परन्तु वातावरणीय परिस्थितियों में बदलाव से इनका महत्व समाप्त हो जाने के कारण विकास-क्रम में इनका क्रमिक लोप होने लगता है, अवशेषी अंग कहलाते हैं । उदाहरण – कर्ण-पल्लव (Pinna) , त्वचा के बाल, बर्मीफार्म एपेण्डिक्स आदि ।

नोट- मनुष्य में लगभग 100 अवशेषी अंग पाये जाते हैं ।
– सर्वप्रथम प्रकाश-संश्लेषी जीव सायनो बैक्टिरिया थे ।
– पक्षियों का विकास सरीसृपों से हुआ है ।
– जल-स्थलचर जीवों का विकास मत्स्य वर्ग से हुआ है ।
– स्तनी वर्ग के जंतुओं का विकास भी सरीसृपों से हुआ है ।

जीवाश्म (Fossils) – अनेक ऐसे प्राचीनकालीन जीवों एवं पादपों के अवशेष, जो हमारी पृथवी पर विद्यमान थे, परन्तु बाद में समाप्त अर्थात् विलुप्त हो गये और जो भू-पटल की चट्टानों में परिरक्षित मिलते हैं ,उन्हें जीवाश्म कहते हैं एवं इनके अध्ययन के जीवाश्म विज्ञान (Paleontology) कहा जाता है ।

जैव-विकास के सिद्धांत (Theory of Organic Evolution )- जैव-विकास के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गये हैं, जिनमें लैमार्कवाद, डार्विनवाद एवं उत्परिवर्तनवाद प्रमुख हैं ।

1. लैमार्कवाद (Lamarckism) – लैमार्क का सिद्धांत (Lamarckian theory) 1809 ई. में उनकी पुस्तक “फिलॉसफीक जूलोजीक” (Philosophic Zoologique) में प्रकाशित हुआ । इसे उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत (theory of inheritance of acquired characters) या अंगों के उपयोग व अनुपयोग का सिद्धांत (theory of use and disuse of organs) कहते हैं ।
इस सिद्धांत के अनुसार जीवों के शरीर पर वातावरण का सीधा प्रभाव पड़ता है । जिसके कारण विभिन्न अंगों का उपयोग घटता-बढ़ता रहता है । अधिक उपयोग में आने वाले अंगों का विकास अधिक एवं कम उपयोग में आने वाले अंगों का विकास कम होने लगता है । इस प्रकार जीवों में वातावरण के प्रभाव के कारण अर्जित होने वाले गुण या लक्षण उपार्जित लक्षण (acquired characters) कहलाते हैं । लैमार्कवाद के अनुसार उपार्जित लक्षण वंशागत होते हैं अर्थात् जनक द्वारा संतति में आ जाते हैं । संतानों में पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे लक्षणों का समावेश होता रहता है और कालांतर में संतानें अपने पूर्वजों से काफी भिन्न होकर नयी जातियाँ बना लेती हैं ।
उदाहरण – i. जिरार्फ की गर्दन की लंबा होना ।
ii. सर्पों में टांगों का विलुप्त होना ।
नोट – उपार्जित लक्षणों का अध्ययन टोंटोलॉजी कहलाता है ।

2. डार्विनवाद (Darwinism) – जैव विकास के संबंध में डार्विनवाद सर्वाधिक प्रसिद्ध है । डार्विन को पुरावशेष का महानतम अन्वेषक कहा जाता है । चार्ल्स डार्विन (1809-1882 ई.) ने 1831 ई. में बीगल नामक विश्व सर्वेक्षण जहाज पर पूरे विश्व का भ्रमण किया । डार्विनवाद के अनुसार सभी जीवों में प्रचुर सन्तानोत्पत्ति की क्षमता होती है । अतः अधिक आबादी के कारण प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु दूसरे जीवों से जीवनपर्यन्त संघर्ष करना पड़ता है । ये संघर्ष सजातीय, अन्तर्जातीय तथा पर्यावरणीय होते हैं । इन संघर्षों के दौरान जो जीव सर्वश्रेष्ठ होते हैं उनका प्रकृति द्वारा चयन कर लिया जाता है । इसी आधार पर डार्विनवाद को “प्राकृतिक वरण का सिद्धांत” भी कहते हैं ।

प्राकृतिक वरण का सिद्धांत – डार्विन के अनुसार केवल वे ही जीव जीवित रहते हैं जो अपने आप को वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं । वे जन्तु जो वातावरण के अनुकूल नहीं हो पाते, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार प्रकृति जीवों का चयन कर नई जातियों का विकास करती है । इसे ही प्राकृतिक वरण का सिद्धांत कहते हैं ।

नव-डार्विनवाद (Neo-Darwinism) – डार्विन के पश्चात् इनके समर्थकों द्वारा डार्विनवाद को जीनवाद के ढाँचे में ढ़ाल दिया गया. जिसे नव-डार्विनवाद कहा जाता है । इसके अनुसार, किसी जाति पर कई कारकों का एक साथ प्रभाव पड़ता है, जिससे इस जाति से नई जाति बन जाती है । ये कारक हैं –
i. विविधता
ii. उत्परिवर्तन
iii. प्रकृतिवरण
iv. जनन
इस प्रकार नव-डार्विनवाद के अनुसार जीन में साधारण परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जीवों की नयी जातियाँ बनती हैं, जिनमें जीन परिवर्तन कारण भिन्नताएँ बढ़ जाती हैं ।

3. उत्परिवर्तनवाद (Mutism) – यह सिद्धांत वस्तुतः ह्यूगो डी व्रीज (Hugo-De-Vries) द्वारा प्रतिपादित किया गया है । इस सिद्धांत के प्रमुख तत्य निम्नवत् हैं –
i. नयी जीव-जातियों की उत्पत्ति लक्षणों में छोटी-छोटी एवं स्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचय एवं क्रमिक विकास के फलस्वरूप नहीं होती है, बल्कि यह उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप होती है ।
ii. इस प्रकार से उत्पन्न जाति का प्रथम सदस्य उत्परिवर्तक कहलाता है । यह उत्परिवर्तित लक्षण के लिए शुद्ध नस्ल का होता है ।
iii. उत्परिवर्तन अनिश्चित होते हैं । ये किसी एक अंग विशेष में अथवा अनेक अंगों में एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं ।
iv. सभी जीव-जातियों में उत्परिवर्तन की प्राकृतिक प्रवृति होती है ।
v. जाति के विभिन्न सदस्यों में उत्परिवर्तन भिन्न-भिन्न हो सकते हैं ।
उपर्युक्त उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप अचानक ऐसे जीवधारी उत्पन्न हो सकते हैं, जो जनक से इतने अधिक भिन्न हों कि उन्हें एक नयी जाति माना जा सके ।

 

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